Wednesday, February 29, 2012

ख्वाब और हकीक़त

सुबह-सुबह ख्वाब से वापसी के बाद देखा
रात की बची हुई शराब में एक चेहरा उतरा रहा है

झुक कर देखा अजनबी था, मगर अनजाना नहीं

रोज चौराहे पर उससे मिलता हूँ
पर पूछ नहीं पता "कौन हो तुम"

रोज सपनों में आकर बतियाते हो
हाल-चाल पूछते हो, झगड़ते भी हो
और रूठ भी जाते हो , लेकिन
फिर भी रोज आते हो सपनों में

हकीक़त में नज़ारा कुछ और ही होता है
न मैं तुम्हे देख पता हूँ, न ही तुम दिखना चाहती हो
किसी पहचान के बिना भी अनबन है

तुम रोज मुझसे नज़रें छुपाती हो
और उतना ही इन आँखों में बसती जाती हो
अजब बात है!!

आज रात जब सपनों में आओगी
तो पूछूँगा तुमसे, कि माज़रा क्या है ?
 

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