Saturday, August 21, 2010

मुदावा

दर्दे-इश्क की दवा है कोई?
मतलब दवा का समझाए कोई?

दर पे बैठे तकते रहे पहरों-पहर
इस इन्तजार में आता है कोई

ख्वाबों का इक महल बनाया हमने
मकीं होना था किसे, मकीं हुआ कोई

सासों के थमने से ही मौत नहीं होती
मेरे कातिल को ये बतलाये कोई

मेरे क़त्ल के बाद की उसने ज़फा से तौबा
ऐसे कातिल का भला क्या करे कोई

वफ़ा, ईमान, इंसानियत, जिनसे-किताब हैं जहाँ
ऐसी दुनिया का भला क्या करे कोई

नाम को लिखना तेरे देता है मजा विसाल सा
इश्क में जूनून की हद बतलाये कोई

इब्ने-मरियम भी दे नहीं सकती मरहम
ऐसेफिगारका मुदावा क्या करे कोई

खुदा कहाँ हो तुम?

बन्दे तेरे फिर रहे हैं करते दहशतगर्दी
कर रहे हैं तेरे नाम की गुंडागर्दी
खुदा कहाँ हो तुम?

कहीं मुंबई में दहशत, कहीं देहली में वहशत
कंधमाल में लुटती हैं माँ-बहनों की अस्मत
खुदा कहाँ तुम?

तेरे लिए तो हैं मंदिर,मस्जिद, गिरजाघर
बन्दे तेरे हैं बेहाल, भूखे और बेघर
खुदा कहाँ हो तुम?

मुल्कों में बट चुकी है दहर सारी
मजहबों में बट गयी इंसानियत सारी
खुदा कहाँ हो तुम?

लगता है फिक्रमंद तू दौलतमंदों का
है रहनुमा तू दहशत पसंदों का
बन गया कठपुतली तू सियासती दरिंदों का
आवाम ने पहन रखी है झूठी खुदा परस्ती
खुदा कहाँ हो तुम

मैं चाहता हूँ

हाँ! मैं भी ज़माने की तरक्की चाहता हूँ
पर पहले लोगो को इंसान बनाना चाहता हूँ

मज़हबों के नाम पर नफरतों का बीज बोते हैं जो
ऐसे खूनी दरिंदों का मैं खात्मा चाहता हूँ

खुदा-भगवान् से पहले इंसानियत की बंदगी हो
अन्जुमने-इर्फानी में आवाम की शिरकत चाहता हूँ

मेरी कौम, मेरा मुल्क, मेरा मज़हब से बहार निकल कर
आदमी को आदमी के लिए फिक्रमंद चाहता हूँ

हर रिश्ते टिके हैं जहाँ तवक्को की बुनियाद पर
ऐसी दुनिया में एक रिश्ता बे-तवक्को चाहता हूँ

सफरे-हयात में जो रक्खे फिगार को नशे में
तेरी आँखों से मैं वो जाम पीना चाहता हूँ

फिर से तेगो-कफ़न बांध लूं बगावत के लिए
शहादत की डगर में “चे” को रहनुमा चाहता हूँ

Monday, August 9, 2010

कुछ सवाल

जिन सपनो के लिए हम जीते हैं , वो मुक़म्मल क्यों नहीं होते?
ख़ुशी चाहते हैं जिनकी, वो अपने क्यों नहीं होते ?

हाज़त है सांसों की, उन्हें देखने की आरज़ू रखता हूँ
कश्मकश है, वो मेहरबान क्यों नहीं होते?

महवे -गमे -दिलदार में, तडपना सिसक जाना
कर दो अहदे- वफ़ा से इंकार, तुम मेरे कातिल क्यों नहीं होते?

खोजते हैं हम, पत्थर में, कुरानों में एक मसीहा
खुदा बनने के खुद काइल क्यों नहीं होते?

जिस कूचे में है तीरगी-ही-तीरगी ऐ फिगार
उस कूचे में जाने से खुद को रोक क्यों नहीं लेते?