Saturday, August 21, 2010

मैं चाहता हूँ

हाँ! मैं भी ज़माने की तरक्की चाहता हूँ
पर पहले लोगो को इंसान बनाना चाहता हूँ

मज़हबों के नाम पर नफरतों का बीज बोते हैं जो
ऐसे खूनी दरिंदों का मैं खात्मा चाहता हूँ

खुदा-भगवान् से पहले इंसानियत की बंदगी हो
अन्जुमने-इर्फानी में आवाम की शिरकत चाहता हूँ

मेरी कौम, मेरा मुल्क, मेरा मज़हब से बहार निकल कर
आदमी को आदमी के लिए फिक्रमंद चाहता हूँ

हर रिश्ते टिके हैं जहाँ तवक्को की बुनियाद पर
ऐसी दुनिया में एक रिश्ता बे-तवक्को चाहता हूँ

सफरे-हयात में जो रक्खे फिगार को नशे में
तेरी आँखों से मैं वो जाम पीना चाहता हूँ

फिर से तेगो-कफ़न बांध लूं बगावत के लिए
शहादत की डगर में “चे” को रहनुमा चाहता हूँ

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