Monday, August 9, 2010

कुछ सवाल

जिन सपनो के लिए हम जीते हैं , वो मुक़म्मल क्यों नहीं होते?
ख़ुशी चाहते हैं जिनकी, वो अपने क्यों नहीं होते ?

हाज़त है सांसों की, उन्हें देखने की आरज़ू रखता हूँ
कश्मकश है, वो मेहरबान क्यों नहीं होते?

महवे -गमे -दिलदार में, तडपना सिसक जाना
कर दो अहदे- वफ़ा से इंकार, तुम मेरे कातिल क्यों नहीं होते?

खोजते हैं हम, पत्थर में, कुरानों में एक मसीहा
खुदा बनने के खुद काइल क्यों नहीं होते?

जिस कूचे में है तीरगी-ही-तीरगी ऐ फिगार
उस कूचे में जाने से खुद को रोक क्यों नहीं लेते?

2 comments:

  1. जिस कूचे में है तीरगी-ही-तीरगी ऐ फिगार
    उस कूचे में जाने से खुद को रोक क्यों नहीं लेते?
    खुबसूरत शेर दिल की गहराई से लिखा गया, मुवारक हो

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